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			बादल हुए उदार
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              | माँ, फिर बादल हुए उदार 
 लगे लुटाने जलकण-मोती
 रह रह सुख की वर्षा होती
 रिमझिम रिमझिम के स्वर फूटे
 ज्यों झंकृत हों वीणा-तार
 
 हरित हुए सब खेत, बाग, वन
 लगे झूमने फिर व्याकुल मन
 विरह अग्नि की तप्त धरा पर
 फिर जीवंत हो गया प्यार
 
 परनाले बहते बन नल से
 गलियाँ गदराई भर जल से
 गलियों में कागज़ की नावें
 बनी बाल- सुख का आधार
 
 लगे उछलने खुश हो दादुर
 कोयल ने छेड़े मीठे सुर
 मोर मुग्ध हो लगे झूमने
 नृत्य कर रहे बारम्बार
 
 माँ, हम भी बूँदों से खेलें
 बौछारों का कुछ सुख ले लें,
 प्रकृति लुटाती रहती जो सुख
 सबका ही उस पर अधिकार
 
 - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
 १ अगस्त २०२४
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