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तीन शेरों को देखकर
जनतंत्र की सोच को समर्पित कविताओं का संकलन
   

तीन शेरों को देखकर
मैं भी शेर हो जाता हूँ
इतना बड़ा शेर
कि चौथा शेर
मुझे दिखाई ही नहीं देता
जब भी मैं दहाड़ता हूँ
चौथा शेर
मेरे शरीर में ढल जाता है
और मुझे वहाँ ले जाता है
जहाँ से वह
किसी को दिखाई नहीं देता

मैं भी मजे से
उसी शेर से
सबको चिढ़ाता हूँ
कि देखो
मैं दिखाई नहीं देता
फिर भी
मैं शेर हूँ, और दहाड़ता भी हूँ
भरोसा न हो तो देख लेना
हर बार की तरह
गणतंत्र के आगमन पर
मेरी दहाड़
के साथ- ढेर सारे शेर दहाड़ेंगे
मेरा शरीर लेकर,
मेरा आकार लेकर
और मेरी दहाड़ से बुना हुआ
मेरा कंकाल लेकर

अशोक विश्वकर्मा
२४ जनवरी २०११

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