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राजनीति के दोहे
जनतंत्र की सोच को समर्पित कविताओं का संकलन
    राजनीति करने लगी, अब तो स्यापा रोज़।
यार रुदाली के सभी, क्या गंगू, क्या भोज।।

राजनीति जबसे बनी, पद की वैध रखैल।
ग्राफ़ बढ़ा अपराध का, देश बना है जेल।।

जाने किसके शीश पे, धरे देश यह ताज।
वर्ष चतुर्दश कर गई, यहाँ खड़ाऊँ राज।।

चूहा कुतरे चूल को, कौआ कुतरे चाम।
नेता कुतरे देश को, भली करें अब राम।।

क्या नेता, क्या नीतियाँ, क्या सत्ता, क्या तन्त्र।
सारे बनकर रह गए, लूटपाट का मन्त्र।।

सुबह खेल है लूट का, सायं कुर्सी-रेस।
देख रहा प्रतियोगिता, दर्शक बनकर देश।।

चकाचौंध है मंच पर, धुंधला है नेपथ्य।
दर्शक-दीर्घा मौन है, नोट करो यह तथ्य।।

चलें कही पर लाठियाँ, बटें कहीं 'तिरशूल'।
देश बना है 'गोधरा', है यह किसकी भूल।।

गीता और कुरान का, अब तो ऐसा मेल।
संग-संग जैसे रहें, माचिस-मिट्टी तेल।।

लालकिले के शीश पर, बौने चढ़े अनाम।
बाअदब, बामुलाहजा, दिल्ली तुझे सलाम।।

योद्धा को फाँसी मिली, मुखब़िर को सम्मान।
सदा रहा इस देश में, केवल यही विधान।।

-रामनिवास मानव
२४ जनवरी २०११

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