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आज प्रतिदिन
जनतंत्र की सोच को समर्पित कविताओं का संकलन
    आज प्रतिदिन सत्य का होता हरण है
देश का बदला हुआ वातावरण है

काश मन से भी वो होते साफ़ सुथरे
जिनके तन पर साफ़ सुथरा आवरण है

बस गयी बारूद की खुशबू हवा में
इस तरह से सड़ चुका पर्यावरण है

भूख से वो उम्र भर लड़ता रहेगा
जिसने ढूँढा ताल छंद और व्‍याकरण है

हैं मेरे भी मित्र क्या तुमको बताऊँ
साँप से ज्यादा विषैला आचरण है

प्रेम के दो बोल हैं सपनों की बातें
विष में डूबा आज हर अन्तःकरण है

दिगंबर नासवा
२४ जनवरी २०११

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