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        गर्मियाँ  

 

फिर आग सी उगलता सूरज निकल रहा है,
फिर से जमीन के तन पे मूँग दल रहा है

फिर से हुए दिनों के कद ताड़ से बड़े हैं,
फिर रात की उमर को कोई निगल रहा है

फिर दोपहर बुलाती कुल्फी बरफ मलाई
फिर नीम छाँव पसरा आराम चल रहा है

फिर बेर हैं उबलते फिर आम का पना है
फिर खस गुलाब नींबू शर्बत निकल रहा है

फिर से मिली ज़रा सी आलस भरी दुपहरी,
फिर से सुकून मेरा बेगम को खल रहा है

फिर से सजी है गुड़िया, फिर बेकरार गुड्डा
फिर लड़ रहीं है सखियाँ, औ' ब्याह टल रहा है

फिर से हवा चलेगी, बारह दरख़्त सोचो,
फिर इन पहेलियों से ,बच्चा बहल रहा है

फिर हैं सुबह चहकती, फिर शाम है सुहानी
फिर रात की बिना में इक ख़्वाब ढल रहा है

फिर मोगरे महकते, फिर है जवां चमेली
फिर से 'अमित' फिज़ा में कुछ इश्क़ पल रहा है

- अमित खरे 
१ मई २०२१

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