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        गर्मियाँ अब तो  

 

दिखा रहा है कुपित शम्स तल्ख़ियाँ अब तो
हवाएँ तेज़ बवण्डर हैं गर्मियाँ अब तो

है सब्ज़गी भी नदारत ख़िज़ाँ का है आलम
दरख़्त सूखते झड़तीं हैं पत्तियाँ अब तो

ज़मीं पे पानी की किल्लत कि बोर सूखे हैं
कुओं के माप से छोटी हैं रस्सियाँ अब तो

सिमट रहे हैं सभी दश्त, ठाँव पानी के
भटकते जीवों के उजड़े हैं आशियाँ अब तो

तपिश से हाँफते जीवों ने प्राण छोड़े हैं
बढ़ीं हैं दूरियाँ जोड़ों के दरमियाँ अब तो

सुलग रही है ज़मीं, बर्फ़ ढूँढती साया
तलाशती है यहाँ धूप सायबाँ अब तो

निपट रहे हैं सभी स्रोत जल जलाशय के
सिमटते पौखरों में मरतीं मछलियाँ अब तो

बढ़े पहाड़ों पे सैलानियों की आवक, पर
वबा के चलते पड़ीं सूनी वादियाँ अब तो

लगाओ पेड़ बचा लो उजड़ती क़ुदरत 'हरि'
ज़मीं से उठ रहीं हर सिम्त सिसकियाँ अब तो

- हरिवल्लभ शर्मा 'हरि' 
१ मई २०२१

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