अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

        पावक हो गए लोग

 

लाल भभूका सूरज लगता
झुलस रहे धरती के प्राण
गर्मी की बेरहम दुपहरी
माँग रही है त्राण

बादल को तरसे हैं नैना
बूँद बूँद की चाह
पीपल की छाया भी सिमटी
ढूँढ़ रही है छाँह

ज्वाला ही ज्वाला है तन में
हों कैसे शीतल गात?
गर्म भट्ठियों सी तपती लू
गरमी के उत्पात

गर्म स्वेद से क्या बुझ पाए
मन की शाश्वत प्यास
जल ही जीवन रटते रटते
टूट रही है आस

जल-अर्जन की लिप्सा जितनी
उतने ही उद्योग
उस पावस की बाट जोहते
पावक बन गए लोग

नदिया सूख गई जल भीनी
उथली हो गई थाह
रेतीले तट सा जीवनहै
विकल हो गई आह

ओ मतवारे, कजरारे घन
प्यास बुझा हर मन की
अब तो आओ मन के नभ पर
कसम तुझे अँसुवन की

- पद्मा मिश्रा
१ मई २०२१

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter