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   पीपल की छाँहों वाले दिन

 

आज यहाँ पर याद आ रहे
पीपल की छाहों वाले दिन

साँझ ढले से चौपालों की
वे अद्भुत दरवेश कथाएँ
चंग झूमते ढपली के संग
बमलहरी के सुर खनकाएँ
अलगोजे पर तान लगाता
मन मन मुदित हुआ इक भोपा
आल्हा उदल, गोरा बादल
शौर्य भरे गीतों को गाएँ

गुड़ की डली, बेझरी रोटी
मिर्ची और प्यार वाले दिन

बनती हुई चाक पर गगरी
तप अलाव में रूप सजाना
रंग कर गेरू से खाड़ियाँ से
इंडुर चढ़ पनघट तक जाना
कंगन और मुंदरी में होती
कानाफूसी को सुन सुन कर
जेहर पर जा पाँव पसारे
गुप चुप पायल को बतलाना

गन्ने का रस और शिकंजी
आम और लस्सी वाले दिन

ठंडा ख़रबूज़ा, तरबूज़ा
क़ुल्फ़ी एक मलाई वाली
रह रह कर वह पास बुलाती
पके फालसों वाली डाली
कुछ अमरूद इलाहाबादी
खिन्नी और रसभरी मीठी
मन फिर अहीन लौटना बागे
पर सीमाएँ हुई सवाली

रबड़ी और फ़लूदे के संग
मौसम्मी के रस वाले दिन

- राकेश खंडेलवाल 
१ मई २०२१

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