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        ग्रीष्म ऋतु

 

हवा बसंती तवा हुई है
भाग रहे हैं धूल के घोड़े

पथ पर पसरी सघन धूप में
इच्छाओं के सूर्यमुखी हैं
मृगतृष्णा के झूठे वादे
पगडंडी की दूब दुखी हैं
आशाओं के ताल तलैया
सूख रहे हैं थोड़े थोड़े

घाम तले छतरी ताने जो
खुशियों के वह गुलमोहर हैं
एसी में गर्मी की कविता
खस ओढ़े मिट्टी के घर हैं
अर्घ्य नीर से तृषा बुझाने
बैठ रहे कपोत के जोड़े

सूरज की अग्नि वर्षा से
शुष्क हुए हैं कंठ पनीले
ललचाएँ ठेलों के खीरे
बेल नारियल हुए सजीले
पकड़ चोंच में अहं के कंकड़
कौवे ने शीतल घट तोड़े

रजनीगंधा स्वप्न सरीखा
डाल गंध की महक उठी
देख प्रीत से भरे सकोरे
नेहिल गौरैया चहक उठी
मध्य धूप में परछाई भी
सिमट गई है मुख को मोड़े

सागर से ले लेकर बूँदें
किरण रवि की भाग रही है
आसमान में है भंडारण
बदरी हर पल जाग रही है
नाच रही हैं रेत बावरी
बीच भँवर में सुध-बुध छोड़े

- ऋता शेखर 'मधु'
१ मई २०२१

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