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        तपी धरा से उठे बगूले

 

तपी धरा से उठे बगूले
दिशाहीन होकर मरुथल में
कोई हिरन राह ज्यों भूले

सन्नाटे ढ़ोते गलियारे
ऐसी प्रखर धूप की बाती
जिसकी ज्वाला सहते- सहते
दरक उठी ताल की छाती
धरती लहूलुहान हुई है
कुछ कहते पलाश हैं फूले

पंख नहीं कोई भी फड़के
सूखा पत्ता ही बस खड़के
इधर- उधर पेड़ों के नीचे
दुबकी हैं छाया डर के
बज्रपात हुआ कलरव पर
कैसा गुंजन, कैसे झूले

क्षीण- कलेवर हुई नदी भी
हारी- थकी रेत पर लेटी
लगता जैसे सहमी- सकुची
हो निर्धन विधवा की बेटी
कौवे का क्रंदन ज्यों कोई
भूले से अंगारा छू ले

श्वास- श्वास भीषण गर्मी में
माचिस की सी जलती तीली
त्राहि- त्राहि मच रहा भुवन में
फिर भी उनकी आँख न गीली
इन्द्रप्रस्थ में इन्द्र व्यस्त हैं
शेष जगत को लगता भूले

- शैलेन्द्र शर्मा 
१ मई २०२१

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