| पता नहीं कब खत्म होगी यह
 अनन्त लम्बी रात
 कारगिल की बर्फीली पहाडियों में,
 अंग अंग में सुइयाँ चुभोती
 सर्द हवाओं के बीच
 इस बंकर के अंदर
 हर रोज इन्तजार करता हूँ
 उस दुश्मन का
 जिसे मैं जानता तक नहीं
 सामने आने पर
 पहचान नहीं सकता।
 बस तैयार रहना है
 हर पल, हर क्षण,
 उस अनजान दुश्मन से
 लड़ने के लिए।
 
                                      याद आता है 
                                      मुझेगाँव का चौपाल,
 बरगद का पेड़ और
 उसके नीचे जलता अलाव।
 उस अलाव की ठंडी हुई
 राख से भी तपिश लेते
 देर रात तक बतियाते
 शरद का आनंद उठाते
 सरल हृदय गंवई लोग।
 याद आता है 
                                      मुझेजवानी की दहलीज पर
 अभी अभी कदम रखे
 युवकों का अलग अलग
 झुंडों में मूँगफली टूँगते,
 आती क्या खंडाला तर्ज पर
 झूमना और गुदगुदाना।
 याद आता है 
                                      मुझेचुन्नू मुन्नू का
 श्याम को जल्दी खाना खाकर
 रजाई में दुबक कर
 चित्रहार देखते देखते
 एक दूसरे के ऊपर
 टाँगे रखकर सो जाना।
 | याद आता है 
                                      मुझे चुन्नू मुन्नू की माँ का
 जल्दी सो जाने की चाह में
 जूठे बर्तनों पर
 जल्दी जल्दी राख मलना।
 
                                      याद आता है 
                                      मुझेपूस की रात में
 लोगों का आधी रात में
 गाँव के बाहर खेतों में
 नहर के पानी का इन्तजार करते
 अपने उज्ज्वल
 भविष्य के सपने देखना।
 पिछले बरस 
                                      भी ऐसे हीगुजार दी थी,
 पूरी सर्दियाँ मैंने
 इन्हीं पहाडियों के बीच,
 इन्हीं बंकरों के अंदर,
 लड़ाई कर इन्तजार करते हुए।
 कौन कहता 
                                      हैमैं इन्तजार कर रहा हूँ,
 लड़ाई का।
 अरे मैं तो लड़ रहा हूँ,
 हर दिन, हर पल, हर क्षण।
 यह लड़ाई है,
 पेट की लड़ाई!
 चुन्नू मुन्नू के, उनकी मां के,
 उनके दादा दादी के
 सबके पेट की लड़ाई।
 यही तो वह लड़ाई है
 जिसे लड़ने आया हूँ,
 सब कुछ छोड़कर,
 हजारो मील दूर, इन पहाडियों के बीच,
 इस शरद महोत्सव मे
 - सत्येश 
                                      भंडारी 
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