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सबकी प्यास बुझाए गंगा

 

 
पर्वत से चलकर सागर तक कल-कल करती जाए गंगा
सबकी प्यास बुझाए गंगा

तीरथ कर दे
नगर-नगर को घाट-घाट पावन कर दे
गुज़र जाय जिस भी प्रदेश से धरती को कंचन कर दे
घर-घर उत्सव-उत्सव कर दे सुख-समृद्धि लुटाए गंगा
सबकी प्यास बुझाए गंगा

बाँधों-बैराजों
पर रुककर नहरों-नहरों दौड़ गई
और किसानों की क़िस्मत बन खेतों-खेतों दौड़ गई
तृप्त सृष्टि हो जाए जिससे ख़ूब अन्न बरसाए गंगा
सबकी प्यास बुझाए गंगा

गंगा को
निर्मल करने को आगे आना ही होगा
गंगाजल की पावनता को हमें बचाना ही होगा
ताकि हमारी नस्लों को भी अमृत पान कराए गंगा
सबकी प्यास बुझाये गंगा

-ओमप्रकाश यती
१७ जून २०१३

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