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गंगा का तट

 


 
आते स्नानपर्व होती जमघट
यादों को याद रहा
गंगा का तट

भूल–भाल जीवन के सारे झमेले
रेलों में हैं सवार
गाँवों के रेले
टिकट लिये कोई
कोई बिना टिकट

हर की पैड़ी हो या संगम के घाट
दिखी आस्थाओं की
लम्बी बारात
पाप धुले और धुले
सारे संकट

पुरखों का भगीरथ प्रयत्न रंग लाया
गोंद में हिमालय की
पुण्य मुस्कुराया
सच पूछो धरती की
पीर गयी मिट

छिड़का, हुआ पवित्र घर का हर कोना
गंगाजल का सचमुच
रूप है सलोना
दूर रही गंगा
फिर भी रही निकट

–रविशंकर मिश्र रवि
१७ जून २०१३

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