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फिर लगा गंगातट पर मेला

 


 
फिर लगा गंगा तट पर मेला
सभी कुछ था यहाँ

दूधिया रौशनी में नहाते
राम के गुण गाते
बेशुमार भक्त
मेले में था पर्यटकों का भी रेला
दूध, जलेबी, छोले
पकौड़ी के ठेले

सजे बच्चों के
रंग बिरंगे गुब्बारे खिलौने
मदारी बंदरों का
तमाशा देखते लोग
कहीं तोते से भविष्य पूछते
चहल पहल का
चहुँ ओर था रेला

पर वो जल जो चमकता था
गमगीन था
संवेदना से क्षीण था
वहाँ आधुनिकता का
शोर था
नहाती गाती बालाओं के
चित्र उकेरता मीडिया था

अगर कुछ नहीं था
उन लहरों में तो
पछाड़ खाता उछाह नहीं था
चारों तरफ
देश विदेश से आये लोग थे
संस्कृति का लेखा जोखा
लेने वाले महारथी भी थे

लेकिन कुछ नहीं था तो
गंगा नहाने के पीछे की
भावना नहीं थी
न ही उस भावना को
समेटने वाला रचनाकार
शिल्पकार था

यह मेला तो बस
सरकार पर भार था
दिखावे का आचार व्यवहार था
ऐसे में गंगा कहाँ नहाओगे ?

डॉ सरस्वती माथुर
१७ जून २०१३

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