अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

गंगा





 

हिमालय का
सतत प्रसरित प्रवाहित मान है गंगा
अमित आदर्श आर्यावर्त की
पहिचान है गंगा

चरण प्रक्षालती
हरि के परम पावन पयस्विनि बन,
अमर वैदिक ऋचाओं का अनश्वर-
गान है गंगा

उतर आई
शिखर कैलाश से, भागीरथी बनकर
धरा से स्वर्ग तक आध्यात्म का
उत्थान है गंगा

वनों में
घाटियों में नाचती, अटखेलियां करती,
तृषा को तृप्ति है अभिशप्ति को
वरदान है गंगा

हहर कर यह
जहाँ से निकल जाती, तीर्थ बन जाते
बनाती देवता नर को, सुधामय
पान है गंगा

गिरी अमरावती
से, शीश शंकर के निबद्धित हो
भगीरथ की तपस्या का सतत
सम्मान है गंगा

गरजते सिंधु
के उर पर, विलोडित वक्ष अपने रख
अनत उद्वेलिता, अनुराग का
अभियान है गंगा

नहाते ही
अघाते पाप पुंजों को विनष्टे ये
विषम कलिकाल में भी अमृत रस का
पान है गंगा
 
-विष्णु विराट

२८ मई २०१२

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter