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गंगा के किनारे





 

हरती थी दुःख, विषाद
गंगा की मंद मुस्कान
नहीं पा रही वह अब अपना स्थान
जो कभी खिलखिलाती थी
कभी बहती जाती थी
वहाँ तक जहाँ तक जीवन था
जहाँ था दो पल का चैन और आराम
क्योकि था वह गंगा धाम

गंगा की मंद मुस्कान
अब दिखाई नहीं देती
कही खो गयी है
वो गंगा जो उछलती थी
थिरकती थी और सब को
थिरकाती थी
उसके कदमों की गूँज
कल-कल, हर पल
सपने सजाती थी
जीवन देकर भी जो
विष ही पाती थी
आज किसी अपने ने
विश्वासघात किया है
उसकी गति को रोक दिया है
शायद इसलिए अब न है
किसी को चैन आराम
और खो गयी है गंगा की मुस्कान
जब वो फिर से आएगी
धरती फिर मुस्काएगी

पूर्णिमा वत्स
२८ मई २०१२

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