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गर्मियों में गंगा : पाँच कविताएँ





 
०१-

धूप में
सीझ रही है तरल धार
रेत में
स्नान कर करे हैं घिसते कगार
पुल से
गुजरती हैं नई - पुरानी गाड़ियाँ बार - बार
नदी पर
करुणा उपजती है अक्सर
और हर यात्रा में
आता है उस पर प्यार।

०२-

कैमरे की काया में
कैद है समूची नदी
कंप्यूटर पर फैल रहा है जल
संपादित करता हूँ चित्र
रंगों से खेलते है की - बोर्ड और माउस
ओह, कितनी शीतलता है
यहाँ इस कमरे में
और बाहर
वाष्प बनकर उड़ रहा है गंगाजल।

०३-

लाया तरबूज
स्कूटर पर सवार होकर
घर आई मिठास
बेरंग - बदरंग समय में
आँखों को भाया
भुला दिया गया सुर्ख रंग
यह तरबूज है सचमुच
या कि घर में
आज के दिन हुआ है गंगावतरण।

०४-

बढ़ रहा है तापमान
खूब हो रही है बिजली की कटौती
काम भर काम के लिए भी
चार्ज नहीं हो पाता है इन्वर्टर।
बाहर शोर है
ट्रैक्टर ट्रालियों पर
लदे जा रहे हैं स्नानार्थी
पसीना पोछते हुए मैं
चौंक कर देखता हूँ कैलेन्डर
- अच्छा , तो आज ही है गंगा दशहरा का नहान !

०५-

बोतल में पानी है
साफ - सुस्वादु - सुशीतल
पुल से गुजर रही है रेल
समय काटने के लिए
शब्दों से मैं कर रहा हूँ खेल
तुक से मिलती जा रही है तुक
बेतुके वक़्त में
बाहर जारी है गंगा की लय
अब आप ही बताएँ
वातानुकूलित शयनयान में
यात्रा करता हुआ एक कवि
तुक भेड़ने के लिए क्या लिखे :
जय
पराजय
भय
क्षय
अथवा संशय।

सिद्धेश्वर सिंह
२८ मई २०१२

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