अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

होली है!!

 

रंगों का इतिहास

बदल गई घर-घाट की, देखो तो बू-बास।
बाँच रही हैं डालियाँ, रंगों का इतिहास।

उमगे रँग आकाश में, धरती हुई गुलाल।
उषा सुन्दरी घाट पर, बैठी खोले बाल।

हुआ बावरा वक्त यह, सुन चैती के बोल।
पहली-पहली छुवन के, भेद रही रितु खोल।

बीते बर्फीले समय, हवा गा रही फाग।
देवा एक अनंग है- रहा देह में जाग।

पर्व हुआ दिन, किन्तु, है, फिर भी वही सवाल।
'होरी के घर' क्यों भला, अब भी वही अकाल।

कुमार रवीन्द्र
१२ मार्च २०१२

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter