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होली है!!


फागुन आया है


लगता है सखि
चुपके चुपके फागुन आया है
ऋतु परिवर्तन हुआ अचानक
मन भरमाया है

आज सुरभि से
भरे हुए हैं वन उपवन खलिहान
कभी नहीं पाया था ऐसा स्वर्णिम नवल विहान
आशाओं की झीलों ने अंतर
नहलाया है

मधुशाला की
धूम मची है भूल रहे जन काशी-काबा
देवर का सम्बोधन पाते जो कल तक थे बुड्ढे बाबा
आज धरा है मुक्त और अम्बर
शरमाया है

कलिका बनी सुधा की प्याली
उपवन ने मानो निधि पा ली
शिशिर ले चुका विदा और मौसम
गरमाया है

डॉ. बच्चन पाठक सलिल
२५ मार्च २०१३

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