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लगी होलिका

लगी होलिका
बढ़ा और भी चौराहों पर जाम।
शहर-नगर ने
ऐसे बाँचा फागुन का पैगाम।

कंक्रीटों की खेती में
कैसे सरसों फूले
महुये, पाकड़ बिना
कहाँ सावन डाले, झूले
कटे बाँस सब
नहीं पहुँच में पिचकारी का दाम।

गुझिया, पापड़, भंग, रंग
सारा कुछ बाजारू
डगमग पाँवों
नुक्कड़-नुक्कड़ नाच रही दारू
मचा फाग के नाम
सड़क पर डी जे का कुहराम।

स्वप्न सुबह के
दिन के संझाते लौटें थक-हार
कब खिलता साधो बसंत
खोली-चालों के द्वार
सत्ता भउजी को पा
साजन भी हो जाते, वाम।

- कृष्ण नन्दन मौर्य
२ मार्च २०१५

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