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गंध की बाँह रंग

छाँह पलती प्रीत सी याद आती
धूप मन को
बदलने लगी है

मृगी के नयन सी अनुभूति कोई
मौन प्राणों को जकड़ने लगी है
पाँव ठिठके आप ही आप जानो
लाज पायल को
पकड़ने लगी है

जादू सा गगन तक बिखरता गया
चेतना मानो बिसरने लगी है
उम्र अनबूझ अर्थों से घिर गई
इक पहेली सी
उभरने लगी है

गंध की बाँह रंग पागल हुआ
पवन धूप की घात होने लगी
रूप चुपचाप ही क्यों इतने सजे
प्यास आँचल में
मचलने लगी है

- निर्मला जोशी
२ मार्च २०१५

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