अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

 

उस धरती का फागुन

मालवा की सड़क पर
दौड़ रही है एक बस
और उससे भी तेज उस किशोर का मन
उल्टी दिशा में

वह अभी इम्तिहान देने जा रहा है
यह सोचते हुए
अगली बीस कब आयेगी

काली मिट्टी के केनवास पर
किसी ने बिखेर दिए हैं पलाश के सुर्ख रंग
वह जा रहा है
जैसे दो दिन ठहर कर चला जाता है फूल
चार दिन रूककर वसंत
पीछे उसके छूटी जाती है एक हँसी
जिसकी खनक में वह गहरे डूबता उतराता है

कितने वर्षों में उसने जाना
इम्तिहान ख़त्म नहीं होते
वापसी केवल ऋतुओं की होती है

हवाएँ जीवन की किताब के कई पृष्ठ एक साथ पलट रही हैं
मिट्टी उड़ती फिर रही है लिए पंख
आम की डाली ने छिड़की है आँगन में गंध
एक गुनगुनी धूप में सूख रहे हैं
धरती की क्यारियों में अभी अभी किये हुए रंग
बज रही है सरोवर के कानों में जल तरंग
भीगी हुई है प्रेम में जीवन की देह

ऐसी ही किसी सुबह
उसकी चमकती हँसी की सरसों में अपने हाथ पीले करने
लौटने वाला था वो लड़का
बहुत पढ़ लिख कर
आत्मा में रंग सहेज कर

जिसकी चिट्ठियों से झरते रंगों से
हो जाती थीं उँगलियाँ गुलाबी
वह जब भी लौटती है स्मृतियों में
दोनों हथेलियों में फागुन लिए
सात समंदर पार बैठा लड़का
कैलेंडर में उस तारीख को होली लिख देता है।

- परमेश्वर फुँकवाल
२ मार्च २०१५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter