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रंग दे दुनिया सारी

ऐसी चला नेह पिचकारी
रंग दे दुनिया सारी।

हृदय-भीत पर जमी हुई जो
कालिख बरसों की
उतर रही है जैसे पकती
खेती सरसों की।
दुखित रंग नीला छाया था
वह भी बदल गया
पिचकारी से निकल नेह रंग
जैसे मचल गया।
बदल रही है धीमे-धीमे
उनकी नीयत कारी।

भुने हुए कितने बरसों के
वैचारिक बंधन
दूर शून्य में खोता-सा वह
अनजाना क्रन्दन
खतरे वाला लाल रंग भी
यों निष्पक्ष हुआ
अपना अर्थ बता पाने में
कितना दक्ष हुआ।
बिखरा दे रंगीली खुशियाँ
लूटूँ बारी-बारी।

- पवन प्रताप सिंह 'पवन'
२ मार्च २०१५

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