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दिन ये फागुन के

हमें मनाने ख़ुद ही चल के
आएँगे अब के
सखी री
दिन ये फागुन के

वैसे तो हम भी रहते हैं
मस्ती में मस्ताने
पर अबकी हम ख़ुद से ही कुछ
रार लिए हैं ठाने
देखें कितने दोस्त हमारे
औ" हैं कितने मीत
कौन मनाता आकर हमको
औ" ले मन को जीत
पर लगता अब भूल गए हैं
दोस्त वो बचपन के

होली पर ना गले मिलो तो
क्यों न रहे मलाल?
माथे लगने तरस रहा है
हाथों लगा गुलाल
कक्का ने समझाया मुझको
कभी न ये करना तुम
दुश्मन से भी होली में कुछ
खफ़ा न रहना तुम
बस इस बात पे
भूल गए हम
घाव सभी मन के

पिछले हफ्ते होकर आए
उसी पुरानी गैल
आशीषें देकर मिलता था
वह बूढ़ा खपरैल
आते रहने की लगता है
करता वो मनुहार
पास खड़े महुओं ने भी बस
किया देर तक प्यार
भीग गए हैं भीतर तक हम
रंग में मधुबन के

- सुवर्णा शेखर
२ मार्च २०१५

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