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होली के पर्व पर

साँझ सकारे द्वारे द्वारे हवा डोलती है
खिड़की बंद खोलती है

भाषा बोली हँसी ठिठोली
में संदेशे हैं
दस्तक दस्तक में मौसम के
चंदन-रेशे हैं
रंग गुलाल अबीर बहाने
क्या क्या हुआ रिहा
चटकारे ले नजर सभी का
वज़न तोलती है

रंगों गंधों के शासन ने
बंधन खोले हैं
मन के भीतर अनचीन्हे से
गड़े हिंडोले हैं
लिए डुगडुगी मादकता
किस किस को नचा रही
हिचकोलों की सिहरन तन में
भंग घोलती है

सभी देव हैं पस्त
सभी पर है अनंग भारी
बाल वृद्ध में सरस रही
नर नारी पिचकारी
कण कण त्रिन त्रिन खिला खुला
निर्द्वन्द्व मलंग हुआ
सबके भीतर कहीं फाग की
रूह बोलती है

- वेद शर्मा
२ मार्च २०१५

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