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रंग         

कैसा काला रंग भरा है
भाग्य लकीरों ने

लाल गुलाबी फूल झड़ गए
पतझड़ आया है
अपनी किस्मत से कब कोई
क्या लड़ पाया है

भले दुआएँ कितनी दी हों
हमें फकीरों ने

हरी दूब मुरझाई सी है
पीले पात हुए
मन के श्वेत पटल पर मेरे
कितने घात हुए

नील नदी से मुख मोड़ा है
दोनों तीरों ने

मटमैली सी कत्थई काया
तन बदरंग हुआ
इस जीवन से मेरा अपनापन
ही भंग हुआ

नित नित गंगा नई बहाई
क्रन्दित पीरों ने

नारंगी चोले को पहना
मैंने राम जपे
कर्म दाह में पल पल मेरे
सुबहो शाम तपे

मेरा दुखता राग सुनाया
ढोल मँजीरों ने

- डॉ अखिल आक्रोश
१५ मार्च २०१६

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