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धरा रंग दो   

धरा रंग दो, घटा रंग दो
फागुनी उत्सव मना लो
मुट्ठियों में रंग भर कर
आसमानों में उछालो

गुनगुनी सी धूप को
कुछ बोलना है
रंग पानी में, हवा में
घोलना है

रोकने को कौन है
जी भर उमंगों में नहा लो

कहाँ सरसों ने अभी
पियरी धुली है
डाल भी कचनार की
कुछ चुलबुली है

दूर रख दो यह उदासी
हाथ मौसम से मिला लो

कोकिला की कूक है
अमराइयों में
मन भला कैसे लगे
चौपाइयों में

आज तो बचना कठिन है
तन रँगा लो, मन रँगा लो

रविशंकर मिश्र “रवि”
१५ मार्च २०१६

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