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फागुन है पसरा

धूप गुनगुनी बहकी बहकी
कंचन हुई धरा
चलने लगी पवन वासंती
फागुन है पसरा

मन के भीतर का पलाश वन
चेहरे पर दहके
तन की सोनजुही आँगन में
महर महर महके

गोरे गालों पर गुलाल का
रंग अजब निखरा

रात रात भर टपक रहा है
महुआ यादों का
खुला पड़ा है घर में पूरा
गट्ठर वादों का

एक सजीला सपना आकर
पलकों पर ठहरा

दिल की धड़कन बोल रही
कोयल की बोली में
मचल रहे अरमान निगोड़े
अबकी होली में

साँझ हुई देखो मुँडेर पर
इन्द्रधनुष उतरा

- प्रदीप शुक्ल
१ मार्च २०१७

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