अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

 

 रंग उड़ने लगे हैं

रंग उड़ने लगे हैं लाल पीले सखी री फागुन में
गीत कोयल भी गाये सुरीले सखी री फागुन में

मौसम लेता है अँगड़ाई
पेड़ों पर नव कोंपल आई
कलियाँ अपने घूँघट खोले
गुन गुन करते भँवरे डोले
रंग फूलों के हुए चटकीले सखी री फागुन में
रंग उड़ने लगे हैं लाल पीले सखी री फागुन में

धरती ओढ़े चूनर धानी
और हवा करती मनमानी
पात पात पर रंगत छाए
बागों में अमुवा बौराये

बेर पकने लगे हैं रसीले सखी री फागुन में
रंग उड़ने लगे हैं लाल पीले सखी री फागुन में

हुरियारों की टोली आए
रंगों में भर गीत सुनाए
बजते हैं जब ढ़ोल मजीरे
भंग चढ़े तब धीरे धीरे

बंध रिश्तों के होने लगे ढीले सखी री फागुन में
रंग उड़ने लगे हैं लाल पीले सखी री फागुन में

राधा नाचे श्याम नचावे
ग्वाल बाल सब फाग सुनावे
धूम मची है बृज में भारी
होली खेले सब नर नारी

नैन राधा के हो गए नशीले सखी री फागुन में
रंग उड़ने लगे हैं लाल पीले सखी री फागुन में

- रमा प्रवीर वर्मा
१ मार्च २०१९

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter