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 पुरवाई के ढोल

आया फागुन लिये उदासी

मौन हुये हैं आखर आखर
लुढ़क पड़ी रंगों की गागर
सपने टूटे आज दिवस के
चला क्षितिज के पार सुधाकर

पसर गया है सन्नाटा सा
आतंकी अब हवा चली है
लिये गोद में प्रह्लादों को
जब से ये होलिका जली है

बिखरे रंग सभी उत्सव के
रोते हैं वन सभी पलासी

मौसम तो है पियराया पर
कहीं सुलगती चिंगारी है
व्यर्थ हुये सब ढोल मजीरे
सबका लगता मन भारी है

सिसक रही हैं कहीं सिसकियाँ
कैसे कह दें बात जरा सी

फागुन होली हँसी ठिठोली
हुये मौन सब राग रंगोली
राह तकें अब केवल नयना
वे तो मना गये सब होली

यादें ही अब रही शेष हैं
पलकें भीगी और रुआँसी

हृदय फूल सा है कोमल पर
पाषाण इसे हम कर लेंगे
जैसी होली खेल रहे तुम
हम भी जी भर कर खेलेंगे

गीता का बस सार यही है
जीवन अजर अमर अविनाशी

- श्रीधर आचार्य "शील"
१ मार्च २०१९

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