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प्रेम रंग बरसे

आसमान से
प्रेम रंग बरसे

जमा वर्ष भर नफ़रत का मल
निकला रगड़-रगड़
भेद-भाव सब भस्म कर दिये
मन के पकड़-पकड़
नये रंग में तर होने को
अंग-अंग तरसे

गीत सुरीले भिगो रहे थे
भीगी खूब हवा
धूप नशीली पीकर बहके
आम और महुवा
खेत, बाग, वन हरा-भरा कर
ॠतु वसंत सरसे

घर के भीतर मत रह जाना
ऐसे मौसम में
जो मिल जाये गले लगाना
सारे आलम में
सराबोर होकर वो लौटे
जो निकले घर से

- सज्जन धर्मेन्द्र
१ मार्च २०२२
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