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        तुम बसंती रंग

तुम बसंती रंग फागुन का न हम पर डालते
दीप आशा का हृदय में हम न कोई बालते

साथ होली में तुम्हारा
भीगते दो पल मिला
स्पर्श आँचल का किसी सावन
से भी शीतल मिला
लौटकर भी रंग वो फिर, आज तक उतरे नहीं
और आँखें रात-दिन, सपने रहीं हैं पालते

रंग से कितनी मदालस
देह सारी हो गई
आँख में सपने भरे तो
आँख भारी हो गई
नींद आँखों के सिरों पर, शांत-सी बैठी रही
और हम बेबस उसे, पहरों रहे हैं टालते

झूमते कितने दिनों तक
रंग के ही ताल पर
फूल वादों के न खिल पाए
किसी भी डाल पर
भाव कोरे हो गए हर बात कोरी रह गई
प्रश्न अनगिन से रहे मन को निरंतर सालते

- अशोक रक्ताले ‘फणीन्द्र’
१ मार्च २०२३
   

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