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	फागुन की झंकार
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 |  | विगत रात्रि से हो रही, 
						चैटिंग बारम्बार बीज प्रेम का बो गयी, फागुन की झंकार
 
 पड़ीं फुहारें प्रेम की, दमक उठा मधुराज
 हृदय बावला हो गया, पत्थर से पुखराज
 
 अधर हिले कौतुक हुआ, कटे युगों के पाश
 फागुन आया दे गया, सपनों को आकाश
 
 एक रंग सपने हुए, एक हुए सुर-ताल
 द्वैत क्षितिज में खो गया, ज्यों ही पड़ा गुलाल
 
 उर शकुन्तला हो गया, प्राण हुए दुष्यन्त
 इन्द्रधनुष आँखें हुईं, सपने उगे अनन्त
 
 प्रीत अनोखी दिख रही, युगों-युगों के बाद
 धूप गुनगुनी कर रही, फागुन से सम्वाद
 
 फागुन शायद तोड़ दे, वर्षों का संन्यास
 कौतुक करती तितलियाँ, बुला रही हैं पास
 
 - डॉ. शैलेश गुप्त 'वीर'
 १ मार्च २०२४
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