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ज्योति पर्व
संकलन

दीप से दीप जले


सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।

लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ
कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।

गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
शकट चले जलयान चले
गतिमान गगन के गान
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।

उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर
भवन-भवन तेरा मंदिर है
स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।

वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है,
तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।

युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।

-माखनलाल चतुर्वेदी

  

छत मुँडेर घर आँगन

छत मुंडेर घर आँगन
ज्योति जगमगाई,
दीवाली आई है,
दीवाली आई।

नील गगन में तारे
धरती पर दीप,
रोशनी की एक बाढ़
आ गई समीप।

ज्योति कलश छलके हैं
निशा फिर नहाई,
दीवाली आई है,
दीवाली आई।

खाखा कर रसगुल्ले
और कलाकंद,
लूट रहे हैं बच्चे
अनुपम आनंद।

दग रहे पटाखे
लो उड़ चली हवाई,
दीवाली आई है,
दीवाली आई

दिख रहा बच्चों में
आज बड़ा मेल
सुंदर खिलौनों से
खूब रहे खेल।

गाँव गाँव, नगर नगर
खुशहाली छाई,
दीवाली आई है,
दीवाली आई

- रामानुज त्रिपाठी

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