अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

ज्योति पर्व
संकलन

 

दीपावली के आलोक में

 

लगातार भर रही हूँ चषक, मैं
बंधुत्व और सौहार्द्र के
नीरा से,
उठा ली है मैंने हाथों में
पूर्वजों की गंगाजली
एक दिव्य सनसनाहट फैल उठी है
मेरे रंध्रों में
असंख्य द्वीप प्रज्ज्वलित हो उठे हैं
मेरी संपूर्ण देह में
नटराज स्वयं
समाहित हैं मेरी थिरकन में
संपूर्ण विश्व नाच उठा है
मेरे संग,
दीपावली के आलोक में
'असतोमा सत गमय
तमसोमा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृत गमय... '

-उषा राजे सक्सेना

 

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter