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          प्रण लिया कोदंडधारी राम ने

 
स्वर्ण मृग बस चाहिए तो चाहिए
अवधपति अति शीघ्र पीछे जाइए

जानकी को लाख समझाया मगर मानी नहीं
इससे पहले ज़िद कोई उसने कभी ठानी नहीं
हो गई मति भ्रम सुनी न बात प्रिय की
फँस गई जंजाल में वह आज हिय की
कह रही यह है निवेदन आख़िरी प्रभु
मत मुझे अब बात में उलझाइए

जानती हूँ जीव सम्मत आपकी ममता दया
है मुझे भी नेह, बनना चाहती न मैं जया
क्या करूँ कुटिया में रहकर मैं अकेली
खेलती मृग से रहूँगी बन सहेली
शस्त्र रक्षक बन सदा बैरी डराए
आप जीवित ही पकड़ ले आइए

कनक का संजाल छम-छम नाचता है सघन वन
एक जोगी जाल बुनता आ रहा है घनन घन
होनियाँ होनी थीं वह होती रहीं
युद्ध की विभीषिका बोती रहीं
काल के पीछे चले हैं जानकीपति
कह प्रिया से धैर्य जी में लाइए

डोलता वन में निशाचर भागता चहुँ ओर है
झलक के प्यासे नैन को दिख रहा न छोर है
बिंब दिखते प्रभु का धीरज उड़ गया
उठ गया कोदंड मृग पर मुड़ गया
गगनभेदी गर्जना आकाश गूँजी
जानकी चीखी लखन सुत धाइए

चीख कोलाहल बनी बनकर उड़ी लंकेश झूमा
अवध से लंका गई कण-कोण ले ब्रह्मांड घूमा
प्रण लिया कोदंडधारी राम ने
सिंधु की लहरें लगीं थर काँपने
मेरी सेना शस्त्र पर अभिमान मुझको
पवनसुत रण दुंदुभी बजवाइए

- जिज्ञासा सिंह
१ अक्टूबर २०२५

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