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उत्सव वाले नदी किनारे

 
बंजारा मन फिर लौटा है
उत्सव वाले नदी किनारे

याद आ गए वो निशान जब गर्म रेत पर पाँव जले थे
बुढ़िया वाले बाल गुलाबी, लाल चाशनी संग घुले थे
रंग बिरंगी फिरकी ढूँढे बौराया
मन याद सहारे

रहट, कुर्सियों वाला झूला सिंहासन जैसा लगता था
रंग बिरंगा शरबत पानी पीकर अमृत-सुख मिलता था
दूर तलक सन्नाटा ओढ़े शोर
सो गया, हृदय पुकारे

बाइसकोप अभी जिंदा है अंतर आँखें चमक उठी हैं
एक अठन्नी चार चवन्नी मन के भीतर खनक उठी हैं
समय बहुत खर्चा, फिर भी सौगातें
हरदम पास हमारे

- डॉ मंजु लता श्रीवास्तव
१ अक्टूबर २०२५

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