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          कोहरे का राग है

धुंध की ठिठुरन भरी चादर सघन है
धूप में लेकिन बहुत ही कम तपन है

आ गया दिनमान लेकर भोर अनुपम
सर्दियों का हो रहा अब आगमन है

गुनगुनी सी धूप की हैं चाहतें फिर
कोहरे का राग है अपनी रटन है

खो गई दृश्यावली नम धुंध में जब
एक जैसा हर जगह दिखता गगन है

पुष्प सब हैं कर रहे जिसकी प्रतीक्षा
श्याम भँवरा कर रहा अब तक शयन है

ओस की बूंदें दमकती जा रही जब
किंतु सहमा सा खिला कोई सुमन है

आरती संध्या समय नियमित समय पर
मंदिरों में हो रहे कीर्तन भजन है

हो गया प्रारंभ आना पंछियों का
प्रिय सभी को किंतु फिर अपना वतन है

- सुरेन्द्रपाल वैद्य
१ दिसंबर २०२१
     

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