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           कोहरे के दिन

बहुरे फिर कोहरे के दिन

कहीं-कहीं हैं चाय-चुस्कियाँ
कहीं नर्म कम्बल
शेष बचे जो उनको मौसम
विकट रहा है खल
काट रहे जन पल-छिन गाढ़े
पोर -पोर पर गिन

शनैः शनैः लुढ़का है पारा
ले माथे पर बल
लगी पेट में आग उबलकर
झरे आँख का जल
राख हुई है धूप सूर्य की
मुखड़े खिन्न मलिन

सर्द हवाएँ लगीं परखने
श्वासों का संयम
कौन युक्ति से दीन झेल ले
ये मौसम के ख़म
आ पहुँचा फिर उन्हें चुभाने
शिशिर बेरहम पिन

- अनामिका सिंह
१ दिसंबर २०२१

     

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