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           धुंध में लिपटी रातें

ठंडी सुबहे, ठंडी शामें
रहें धुंध में
लिपटी रातें

ऊषा किरणों की है चाहत
दोपहरी ही देती राहत
सिगड़ी पर हैं तपते रहते
कितने किस्से
कितनी बातें

दृश्य कभी कुछ और कभी कुछ
धुँधला देती धुंध सभी कुछ
जैसे निगलें एक-एक करके
दृश्यों की वे
उजली पातें

बित्ता-बित्ता है बढ़ जाती
प्रीत-प्रेम हाथों गढ़ जाती
ऊनी लच्छी में हैं उलझी
नर्म-गर्म सी
कितनी यादें

- दिव्या राजेश्वरी
१ दिसंबर २०२१
     

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