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      कोहरे की सुबह

रात से काजल चुराकर पूर्व से सिंदूर पाकर
कोहरे की ओढ़ चूनर दबे पाँवों
भोर आती

अब्र कण सी
निखर बिखरी ऊभ चूभे हर दिशा में
भानु का करने आलिंगन थी प्रतीक्षारत निशा में
टीप टापुर के स्वरों में ओस पातों से टपकती
मधुर ध्वनि जब पंछियों के कंठ से बाहर निकसती
स्थिर किनारों पर कुड़क कर नदी बहना
भूल जाती

ताल में विहँसी
कुमुदनी लाज से पलकें झुकाती
ज़ोर से अंगड़ाई ले तब दिन निकलता है शयन से
चक्षुओं पर मार छींटे भानु से करता विनय यह
मित्र थोड़ा रुक निकलते जोड़ों के कुछ बँध खुलते
जोश फिर भरता हृदय में नव सुबह
फिरसे लुभाती

- सरस दरबारी
१ दिसंबर २०२१
     

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