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       ओढ़कर कोहरे की चादर

ओढ़कर कोहरे की चादर सूर्य दिन में सो रहा है
और सारा शहर जाने गुम
कहाँ पर हो रहा है

अजनबी से लग रहे हैं दूर से परिचित सभी जन
लग रहा धुँधला गये हैं, ताल, सडकें और उपवन
ओस गिरती अश्रु बन ज्यों
ये गगन भी रो रहा है

चाल मध्यम हो गई है, हर तरफ आवागमन की
और कोहरे से बढ़ीं गुस्ताखियाँ शीतल पवन की
फूल, पत्तों, पेड, पौधों का
ये चेहरा धो रहा है

जाति, मज़हब, ऊँच नीचा, हो धनिक या कोई निर्धन
भेद ये करता नहीं है, उम्र का कोई न बन्धन
इक नजर से सबको देखे
बीज ऐसे बो रहा है

- शरद तैलंग

१ दिसंबर २०२१
     

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