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				|  | माटी के प्रारूप |  
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							| माटी तेरे रूप के, हैं कितने 
						प्रारूप। दीपक बन जलता कहीं, कहीं देव का रूप।।
 
 माटी चढ़ती चाक पर, गढ़ता रूप कुम्हार।
 माया बुनती जाल है, खूब रचा संसार।।
 
 माटी माँ सम जानिये, मन में भरे उमंग।
 मिट जाते संताप सब, जुड़ माटी के संग।।
 
 सुत लौटा परदेस से, छोड़ सभी सम्बन्ध।
 खींच उसे ले आ गयी, इस माटी की गंध।।
 
 पवन अगन जल तेजमय, यह सारा संसार।
 जीवन के सन्दर्भ में, माटी है आधार।।
 
 सारे जग में व्याप्त है माटी के गुण तीन।
 सत्व रजो तम भाव में, जग सारा है लीन।।
 
 माटी माटी है नहीं, माटी होती खास।
 इसके अंतस में छिपा, युग युग का इतिहास।।
 
 - श्रीधर आचार्य 'शील'
 १ अक्टूबर २०२४
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