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				माटी की गंध | 
			 
			
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						अपनी 
						पहचान खोजने के लिये  
						मैं चल पड़ी थी 
						अनजान राहों पर 
						आज बहुत दूर आने के बाद  
						अहसास हुआ कि 
						मैं खुद को छोड़ आई हूँ 
						पीछे, बहुत पीछे 
						 
						मेरी साँसे कैद हैं 
						शिव मन्दिर के प्रांगण में 
						झूमते पीपल के कोटर में 
						जहाँ चिड़िया के दो नन्हे बच्चे 
						चूँ-चूँ कर रहे हैं 
						मेरा सूक्ष्म शरीर खेल रहा है 
						कच्ची मिट्टी के ऑंगन में 
						मेरे पैर आज भी दौड़ रहे हैं 
						खेत की मेड़ों पर  
						नाचती तितलियों के पीछे 
						 
						यद्यपि मेरी देह खड़ी है  
						ईंटों के जंगल में 
						पर 
						मेरे रोम- रोम में, अन्तर में,
						बसी है 
						उस माटी की गन्ध 
						जहाँ मेरा बचपन खेला था 
						 
						- डॉ. मधु प्रधान 
						१ अक्टूबर २०२४ | 
						 
					 
				 
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