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				|  | माटी 
				बन जाती है काया |  
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							| जादू अद्भुत मन को भाया जड़ में चेतन का प्रवेश तो, माटी बन जाती है काया
 
 माटी ही संस्कार बने जब, माटी कहती दिल की धड़कन
 माटी से निकली सीता से, माटी को क्या होती अड़चन
 स्नान किया जो माटी में पर, हाथ हुए ना बिल्कुल मैले
 फूल समर्पित गंगोत्री का, इससे गंध गगन तक फैले
 तरु की डाली नभ तक जाए
 बीज समर्पित होता आया
 
 मिट्टी रहस्य बनी जीव की, अंतरिक्ष में जाकर खोजा
 ऋषि के तप की आज्ञा होती, ज्ञान को एक-सूत्र पिरो जा
 ब्रह्म-ज्ञान अद्वैत बना तो, छाया उद्गम की रग रग में
 भ्रम फैलाते दंभ मिट गए, ढोंग-धतिंग चला ना जग में
 झूठे दर्शन खो जाते हैं, मिट्टी के परदे की माया
 
 छू सितार को, बजे फूल जब, सुरभित हो, गीत मधुर गाएँ
 मिट्टी में दब गए अनेकों, शव सड़ांध, दुर्गंध छुपाएँ
 खुल जाते रहस्य मिट्टी से, धर्मग्रंथ की निकली वाणी
 गंगा बन बह निकली जाती, चट्टान-हृदय की पाषाणी
 जागृत आत्मा के प्रवाह में,
 बह जाती प्रेतों की छाया
 
 - हरिहर झा
 १ अक्टूबर २०२४
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