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        माघ का महीना

 
रात्रि का अंतिम प्रहर
हर ओर पसरा नीरव स्याह अँधेरा
घने वृक्षों का झुरमुट
असीम आकाश मे छिटके तारों की झिलमिलाहट

कोसी किनारे पसरी चमकती रेत का चौड़ा पाट
पाट को लाँघने का प्रयास करता
वेगमयी नदी का प्रवाह
शीत में कांपता तन मन...
नदी किनारे जलते अलाव की ऊष्मा से
खुद को ढाँपने को ललकता मन

अलाव की सुलगती लकड़ियों की
लालिमा में दमकता तुम्हारा अक्श
कहने को कितना कुछ होते हुए भी
खो जाते शब्द ..
परंतु
मौन को आवाज़ देने की कोशिश करती
पलकों की झपकाहट
और होंठों का कंपन

लगा जैसे
समूची कायनात सिमट आई है
तुम्हारे चारों ओर
ठंडी हवा के स्पर्श का स्पंदन
अहसास करा जाता है भोर के उजास का

पहाड़ी पार बादलों से झाँकता सूरज
सर्द सुबह की मासूम धूप
नदी बीच चट्टान पर मंदिर के
घंटे की पावन धवनि..

आओ अपने सपनों को संजोये
रम जायें प्रकृति की असीम संजीवन संरचना में
घुल जायें घंटे की प्राणदायी ध्वनि मे
मिल जायें नदी के त्वरित प्रवाह में
और
विलीन हो जायें विराट ब्रम्हांड में

- मनोज मित्तल
१ दिसंबर २०२५

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