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         माघ पावन

 
एक तरुणी रच रही है द्वार पर अपने रँगोली
माघ पावन मुग्ध मन है क्या हवन
फिर से चलेंगे

सोचने की बात कब है बात है संन्यासियों की
सिर्फ़ पीपल जानता है रीति यह अनुयाइयों की
देखिए नीलम गगन है क्या
विदेसी फिर मिलेंगे

हाँ विदेसी वही प्रियतम जिनको ध्याते आँख हो नम
हौसला टूटे न विरहन गेह में कुछ भी नहीं कम
हाँ यही तो वह वतन है फिर
जहाँ घुंघटे हँसेंगे

देहरी पर दिए बालो आस में मौसम संभालो
पाखियों की सुनो चहकन प्रेम-गंगा में नहा लो
चाँद करता आचमन है सूर्य के
रथ नहिं रुकेंगे

---अश्विनी कुमार विष्णु
१ दिसंबर २०२५

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