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         धूप माघ में

 
थर-थर थर-थर काँप रही है
धूप माघ में हाँफ रही है

ठिठुर रही वह जाड़े में, ताप माँगती भाड़े में
पूछें थोड़ा रहती क्यों- लेती सबको आड़े में
साँझ हुई तन ढाँप रही है
धूप माघ में हाँप रही है

मनमौजी वह जाड़े में रखती सबको बाड़े में
मंथर गति से आती है- रखती सबको हाड़े में
अपना घर भी झाँप रही है
धूप माघ में हाँप रही है

सर्दी में लगती प्यारी सबको लगती है न्यारी
राह देखते सब इसकी- बन जाती यह सुकुमारी
सबके मन को भाँप रही है
धूप माघ में हाँफ रही है

- कामिनी श्रीवास्तव 'कीर्ति'
१ दिसंबर २०२५

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