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         माघ आ गया

 
माघ आ गया
लेकर फिर से कुहरीला मौसम

शीत लहर चुभ रही तीर सी
जैसे कटु यादें
बिखर रहा है सब कुछ
साधें तो कैसे साधें

थकी -थकी सूरज की किरणें
नहीं रहा दम-खम

कोई न जाने कहाँ खो गईं
सपनों की परियाँ
बाँध रहीं थीं रिश्तों को जो
टूट गईं कड़ियाँ

तोल रहा है समय स्वयं को
पर आँखें हैं नम

जो छाया देते थे उन पर
चलती हैं आरी
सिमट रहीं हैं खुद में सहमी-
सहमी सी क्यारी

कैसा होगा कल जाने
कैसे हों पेंचो -खम

- मधु प्रधान
१ दिसंबर २०२५

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