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        धूप माघ

 
दुल्हन जैसी ठुमक-ठुमककर
पग है धरती धूप माघ की

खेतों पर आँचल फैलाए
मीनारों पर चढ़ इतराये
छज्जे ऊपर बनी नायिका
तिर्यक मुख अपना दिखलाए
सहमी चिड़िया के
पंखों में उर्जा भरती
धूप माघ की

खोल हथेली धूप खा रहे
घर-आँगन, द्वारे-चौबारे
आँख मींचकर कुनमुन मन से
बिटिया बुनती स्वप्न कुँवारे
घूँघट भीतर भाभी तरसे
उसे चिढ़ाती
धूप माघ की

पगडंडी पर पीत दुशाला
ओढ़ चमकती वनकन्या सी
आकर्षित हो ही जाते सब
हों गृहस्थ या फिर सन्यासी
सब पर नेह लुटाती चलती
नगरवधू सी
धूप माघ की

- डॉ मंजु लता श्रीवास्तव
१ दिसंबर २०२५

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